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सा व॑ह॒ योक्षभि॒रवा॒तोषो॒ वरं॒ वह॑सि॒ जोष॒मनु॑। त्वं दि॑वो दुहित॒र्या ह॑ दे॒वी पू॒र्वहू॑तौ मं॒हना॑ दर्श॒ता भूः॑ ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sā vaha yokṣabhir avātoṣo varaṁ vahasi joṣam anu | tvaṁ divo duhitar yā ha devī pūrvahūtau maṁhanā darśatā bhūḥ ||

पद पाठ

सा। आ। व॒ह॒। या। उ॒क्षऽभिः॑। अवा॑ता। उषः॑। वर॑म्। वह॑सि। जोष॑म्। अनु॑। त्वम्। दि॒वः॒। दु॒हि॒तः॒। या। ह॒। दे॒वी। पू॒र्वऽहू॑तौ। मं॒हना॑। द॒र्श॒ता। भूः॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:64» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे स्त्री-पुरुष कैसे वर्त्ताव वर्त्तें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (दिवः) सूर्य की (दुहितः) कन्या के तुल्य तथा (उषः) उषा प्रभातवेला के समान वर्त्तमान श्रेष्ठ मुखवाली ! (या) जो (अवाता) वायुरहित (उक्षभिः) वीर्यसेचकों से युक्त (वरम्) श्रेष्ठ (जोषम्) प्रीति से चाहे हुए पति को (अनु) अनुकूलता से (त्वम्) तू (वहसि) प्राप्त होती (सा) वह मुझ पति को (आ, वह) सब ओर से प्राप्त हो (या) जो (ह) ही (पूर्वहूतौ) पूर्व सत्कार करने योग्यों के आह्वान के निमित्त (मंहना) सत्कार करने और (दर्शता) देखने योग्य (देवी) विदुषी तू (भूः) हो सो मेरी प्रिया स्त्री हो ॥५॥
भावार्थभाषाः - जैसे उषा रात्रि के अनुकूल वर्त्तमान नियम से अपने काम को करती है, वैसे ही नियमयुक्त स्त्री अपने घर के कामों को करे तथा ब्रह्मचर्य के अनन्तर अपने मन के प्यारे पति को विवाह कर प्रसन्न होती हुई पति को निरन्तर प्रसन्न करे, ऐसे ही पति भी उस अनुकूल आचरण करनेवाली को सदैव आनन्दित करे ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ स्त्रीपुरुषौ कथं वर्त्तेयातामित्याह ॥

अन्वय:

हे दिवो दुहितरुषर्वद्वर्त्तमाने भद्रानने ! याऽवातोक्षभिर्युक्तं वरं जोषमनु त्वं वहसि सा मां पतिमा वह या ह पूर्वहूतौ मंहना दर्शता देवी त्वं भूः सा मम प्रिया भव ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सा) (आ) (वह) समन्तात्प्राप्नोतु (या) (उक्षभिः) वीर्यसेचकैः (अवाता) वायुविरहा (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (वरम्) श्रेष्ठं पतिम् (वहसि) प्राप्नोषि (जोषम्) प्रीतम् (अनु) (त्वम्) (दिवः) सूर्यस्य (दुहितः) कन्येव वर्त्तमाना (या) (ह) किल (देवी) विदुषी (पूर्वहूतौ) पूर्वेषां सत्कर्त्तव्यानां वृद्धानामाह्वाने (मंहना) पूजनीया (दर्शता) द्रष्टव्या (भूः) भवेः ॥५॥
भावार्थभाषाः - यथोषा रात्रिमनुवर्त्तमाना नियमेन स्वकृत्यं करोति तथैव नियता सती स्त्री स्वगृहकृत्यानि कुर्यात्। ब्रह्मचर्यानन्तरं हृद्यं पतिमूढ्वा प्रसन्ना सती पतिं सततं प्रसादयेत्। एवमेव पतिरपि तामनुव्रतां सदैवानन्दयेत् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जशी उषा रात्रीच्या अनुकूल नियमानुसार आपले कार्य करते तसेच स्त्रीने नियमानुसार आपली गृहकृत्ये करावीत. ब्रह्मचर्यानंतर हृद्य पती स्वीकारून त्याच्याशी विवाह करावा. तसेच पतीनेही आपले अनुकूल आचरण करणाऱ्या स्त्रीला सदैव आनंदी ठेवावे. ॥ ५ ॥